पता नही तेरी मौन स्वीकृति को क्यूँ मैं हाँ समझ बैठा |
पगली तू तो ख्वाब ही थी कोई मैं ही सच समझ बैठा ll
बस दो-चार कदम ही तो चली थी तू हाथों को पकड़ के |
इतने को ही बस मैं ज़िंदगी भर का साथ समझ बैठा ll
शबाब को शबाब की हद तक चाहता हूँ l
तू पत्थर ही सही पर तुझे खुदा मानता हूँ ll
कितना भी कर तू मुझे पहचानने से इनकार l
अफ़सोस इस शहर में बस तुझे ही जानता हूँ ll